गट माइक्रोबायोम (Gut Microbiome) यानी आंत में मौजूद सूक्ष्म जीव मल्टीपल स्क्लेरोसिस (Multiple Sclerosis) नामक बीमारी को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह एक ऑटोइम्यून रोग है, जो हमारे सेंट्रल नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है, जिससे यह समझने में मदद मिल सकती है कि कुछ लोगों को यह बीमारी क्यों होती है।
हमारी आंत में खरबों बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्म जीव होते हैं, जिन्हें मिलाकर माइक्रोबायोम (Gut Microbiome) कहा जाता है। ये जीव हमारे पाचन तंत्र में रहते हैं और हमारे स्वास्थ्य पर असर डालते हैं।
अमेरिकन यूनिवर्सिटी की शोध में दावा
अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया कि मल्टीपल स्क्लेरोसिस (Multiple Sclerosis) के मरीजों की आंत में कुछ खास तरह के बैक्टीरिया की मात्रा सामान्य लोगों की तुलना में अलग होती है। साथ ही, इन मरीजों में “इम्युनोग्लोबुलिन ए (आईजीए)” नामक एंटीबॉडी से ढके बैक्टीरिया की संख्या भी कम पाई गई।
कब होता मल्टीपल स्क्लेरोसिस
शोध की मुख्य वैज्ञानिक, एसोसिएट प्रोफेसर एरिन लॉन्गब्रेक के अनुसार, “जब मरीजों में आईजीए से ढके बैक्टीरिया कम होते हैं, तो यह दर्शाता है कि उनके शरीर और आंत के जीवों के बीच संतुलन बिगड़ गया है। संभव है कि पर्यावरणीय कारणों से आंत के बैक्टीरिया में बदलाव होता है, जिससे मल्टीपल स्क्लेरोसिस होने की संभावना बढ़ जाती है।”
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ब्रेन की इस खतरनाक बीमारी का कनेक्शन
एक्सपर्ट्स के मुताबिक, मल्टीपल स्केलेरोसिस एक ऑटोइम्यून बीमारी है, जो हमारे नर्वस सिस्टम को प्रभावित करती है। इसमें शरीर का इम्यून सिस्टम अपनी ही नसों की सुरक्षा करने वाली परत मायलिन को नुकसान पहुंचाता है।
मायलिन परत नसों के चारों ओर एक सुरक्षा कवच की तरह काम करती है, जो ब्रेन से शरीर के अन्य अंगों को मैसेज जल्दी और सही तरीके से भेजने में मदद करती है। जब यह परत कमजोर हो जाती है, तो दिमाग और शरीर के अन्य हिस्सों के बीच संदेशों का आदान-प्रदान धीमा हो जाता है या रुक जाता है। इससे शरीर के विभिन्न हिस्सों में कमजोरी, सुन्नापन, विजन में समस्या और संतुलन की समस्या हो सकती है। यह बीमारी किसी भी उम्र में हो सकती है, लेकिन आमतौर पर 20 से 40 साल के बीच के लोगों को प्रभावित करती है।
43 मरीजों पर हुआ शोध
यह अध्ययन “न्यूरोलॉजी न्यूरोइम्यूनोलॉजी एंड न्यूरोइन्फ्लेमेशन” पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। इसमें 43 ऐसे लोगों को शामिल किया गया, जिन्हें हाल ही में मल्टीपल स्क्लेरोसिस हुआ था और उन्होंने अभी तक कोई इलाज शुरू नहीं किया था। इनकी तुलना 42 स्वस्थ लोगों से की गई।
उनके मल के नमूनों की जांच से पता चला कि एमएस (मल्टीपल स्केलेरोसिस) के मरीजों में ‘फीकलिबैक्टीरियम’ नामक बैक्टीरिया कम थे, जबकि बिना इलाज वाले एमएस मरीजों में ‘मोनोग्लोबस’ नामक बैक्टीरिया ज्यादा थे।
19 मरीजों पर किया इलाज सफल
इन 43 मरीजों में से 19 को “बी-सेल डिप्लीशन थेरेपी” नामक इलाज दिया गया, जिससे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) की उन कोशिकाओं को नष्ट किया जाता है, जो ऑटोइम्यून बीमारियों को बढ़ाती हैं। इलाज के छह महीने बाद, जब दोबारा इनके मल के नमूने लिए गए, तो इनके गट माइक्रोबायोम स्वस्थ लोगों की तरह हो गए।
प्रोफेसर लॉन्गब्रेक ने कहा कि इस अध्ययन से यह समझने में मदद मिलती है कि यह दवा मल्टीपल स्क्लेरोसिस के इलाज में कैसे काम करती है। इसके जरिए यह भी जाना जा सकता है कि कुछ लोगों को मल्टीपल स्क्लेरोसिस क्यों होता है, जबकि अन्य लोग इससे सुरक्षित रहते हैं।
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